मेरी कई माँ हैं

हिन्दी मेरी देवकी है, अंग्रेजी मेरी यशोदा। मारवाड़ी मेरी दादी-माँ है, बंगाली मेरी मासी-माँ। संस्कृत मेरी बड़ी दादी माँ हैं। इन्होंने सभी ने अपने अपने ढंग से मेरा पोषण किया है और मेरे लिए यह सभी अति-महत्वपूर्ण हैं।

भारत की और विश्व की अन्य सभी भाषाएं भी मेरी मासी-माँ* हैं। मैं उनमे से कई को बिल्कुल नहीं जानती, नहीं पहचानती, मगर पता है कि जब मुलाकात होगी, दोस्ती हो जाएगी। क्योंकि वे मेरी मा-सी हैं। मैं उनके बच्चों को, उस भाषा को बोलने वालों को अगर एक मुस्कान दूँगी, तो बदले में वे मुझे अपने एक-दो शब्द दे देंगे। ऐसा मैंने अनुभव भी किया है — जब अमरीका में थी तब स्पैनिश के साथ अनुभव किया, दक्षिण भारत में, उडुपी-मनिपाल में कन्नड के साथ। उस भाषा को, उस मेरी मासी की सौन्दर्य को अगर कौतुक से देखूंगी, उसे गौर से सुनूंगी — वह भाषा सीख लूंगी। ऐसा हम क्यों मानते हैं कि हमारी एक ही माँ है? एक ही मातृ-भाषा है, एक ही हमारी संस्कृति है, एक ही हमारा धर्म है? मेरी कई माँ हैं।

जिन्होंने मेरे जीवन को सजाया है, इन सभी भाषाओं के प्रति, खासकर हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और बंगाली के प्रति मैं बहुत गहराई से कृतज्ञता महसूस करती हूँ। जब लोग यह सोचते हैं कि क्षेत्रिय भाषी मुक्त विचार के नहीं हो सकते, अथवा जब क्षेत्रिय भाषी अपने को किसी प्रकार से अयोग्य महसूस करते हैं, क्षमा माँगते हैं कि उन्हे अंग्रेजी नहीं आती तो भी मन में चुभन होती है।

साथ ही कभी किसी हिन्दी फ़ोरम या पत्रिका में अंग्रेजी के प्रति, या अंग्रेजी भाषी भारतीय के प्रति जब झुंझलाहट व्यक्त होता देखती हूँ, तो बात अखरती है। अंग्रेजी से मैंने जो पाया है, और जिस प्रकार से वह मेरे व्यक्तित्व में, मेरे विचारों में तर-बतर रमी है, वह मैं बयां नहीं कर सकती। अंग्रेजी का मेरे जीवन में योगदान का मुल्यांकन सम्भव नहीं है। अंग्रेजी ने सिर्फ़ मुझपर बौद्धिक असर ही नहीं किया है, बल्कि उसने मेरे व्यक्तित्व के हर पहलू को संवारा है। अपनी संस्कृति के प्रति गर्व महसूस करने के लिए दूसरी संस्कृति के प्रति रोष महसूस करना तो आवश्यक नहीं है। वह भी हमारी ही निधि है। इस विश्व में जो भी सुन्दर कुछ पनपता है, सब हमारी ही निधि है। अपने आप को हम सीमित क्यों रखें? “वसुधैव कुटुम्बम्” यह वसुधा ही हमारा कुटुम्ब है, यह है हमारा धरोहर।

मुझे अपनी संस्कृति पर बहुत गर्व है। गर्व से ज़्यादा, एक सुरक्षा का एहसास होता है। हां गीत, संगीत, कला, इतिहास, मन्त्र, गाथाएं यह सब तो है ही। इन सब में आनन्द भी आता है और यह भी लगता है कि इनके जरिए खुद ही से जुड़ रही हूँ। और इन सबसे ज़्यादा मुझे वेदान्त पर गर्व है। लगता है कि चाहे मेरा मन से किसी दिन यह घोषणा “अहम् ब्रह्मास्मि” हो या न हो, वेदान्त है, वह ज्ञान है, मैं सुरक्षित हूँ।

पर इन दिनों कई बार मन में विचार आया — अगर कुछ ऐसा हो कि मेरी सारी संस्कृति लुप्त होती नज़र आए, शास्त्रिय संगीत, नृत्य, काव्य, हिन्दी, संस्कृत, इतिहास, समस्त गाथाएं… वेदान्त का संदेश भी वेदान्त के नाम से लुप्त होता दिखे – और मुझसे कहा जाए कि इन सबमें से तुम बस कोई एक छोटी सी निधि रख सकती हो, तो मैं क्या रखना चाहूँगी? मैं चुनूंगी दो शब्द। वसुधैव कुटुम्बकम्। यह वसुधा ही मेरा कुटुम्ब है। The world is my family.

वह शब्द “वसुधैव कुटुम्बकम्” भी लुप्त हो तो हो जाए, पर वह विचार, वह सत्य मन में कायम रहे – कि इस धरती के सभी लोग, सभी प्राणी मेरे कुटुंबी हैं। इस एक विचार के संग मुझे पता है मैं जहाँ भी जाऊँ मुझे मेरा परिवार मिलेगा। मैं जहाँ भी जाऊँ, मेरी जो भी ज़रूरते हों, उनकी पूर्ति हो जाएगी। अपने मम्मी-पापा और भाईयों से दूर, जो १३ साल मैं अकेले रही, हर जगह, पग पग पर, मेरा यही अनुभव रहा है। लोगों से बस दोस्ती ही नहीं हुई है, सिर्फ़ ज़रूरत के वक्त सहायता ही नहीं मिली है — हर सम्पर्क से मैंने यही जाना कि वह तो मेरा कुटुंबी है। मन में उस हर एक व्यक्ति के प्रति यह भावना उठी है, कि यू आर माय फ़ैमिली। उस वक्त नहीं उठी तो बाद में जब उस मुलाकात को मैंने और गहराई से समझा, तब मन में वह बात उठी – कि यू आर माय फ़ैमिली। अपरिचित लोग स्वजन बन गए।

शुरुआत से ही मैंने शिक्षा इंगलिश-मीडियम स्कूल में पाया। स्कूल में हर सुबह हम असेम्ब्ली में अंग्रेजी भजन (hymn) गाते थे। हफ़्ते में एक गाने का क्लास भी होता था। उसमें हमारी अध्यापिका कई मज़े के गीत और अन्य भजन सिखाती थी। घर पर पापा ने इतनी तन्मयता से बच्चन की “इस पार उस पार” गाया, रसखान और बिहारी के दोहे “मेरी भवबाधा हरो” गाया कि वह एक शाम का मुझपर गहरा प्रभाव पड़ा। मम्मी ने भैया को और मुझे थोड़ी बहुत संस्कृत सिखाई। हमारे घर पर संस्कृत स्तोत्र और तुलसीदास की कृतियां अक्सर गाई जाती हैं। नतीजा यह है कि अब इतने वर्ष पश्चात भी, यदा कदा मेरे हृदय की गहराई से वह स्कूल में सीखे अंग्रेजी भजन उतनी ही स्वभाविकता से उमड़ पड़ते हैं जितना की वे सारे हिन्दी भजन और संस्कृत स्तोत्र जो मैंने घर सीखा है।

Jesus I give You, my heart and my soul
I know that without You, I’ll never be whole
Master You opened all the right doors
I thank You and praise You
From earth’s humble shores
Take me I’m Yours

यह पंक्तियां उतनी ही मेरी हैं जितनी कि

आत्मा त्वं, गिरिजा मतिः, सहचरा: प्राणाः, शरीरं गृहं …
यत्-यत् कर्म करोमि तत्-तत् अखिलम्, शंभो तवाराधनम्
करचरणकृतं वा, कायजं, कर्मजं वा
श्रवण नयनजं वा, मानसं वापराधम्
विहितमविहितं वा, सर्व मेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो।

तो मैं हिन्दु हूँ, और इसाई भी – और दोनो ही नहीं हूँ।

इन दिनों मैं एक पुस्तक का अध्ययन कर रही हूँ जिसका शीर्षक है “A Course In Miracles”. यह पुस्तक १९७० के आस-पास अमरीका में लिखी गई थी। A Course In Miracles के ज़रिए मैं सीख रही हूँ कि हर पल हम भय की जगह प्रेम कैसे चुन सकते हैं। इस पुस्तक में जो भी कहा गया है, सब हूबहू वही है जो वेदान्त में है। यह मेरे लिए बहुत संतुष्टि की बात है। शब्द ईसाई हैं, पुस्तक की वाणी से यही महसूस होता है कि ईसा मसीह कह रहे हैं, पर बात वही है जो वेदान्त में कही गई है, बस कहने का अन्दाज़ अलग है। समझाने के अलग ढंग के कारण मैं उस पुस्तक को ज्यादा सहजता से ग्रहण कर पा रही हूँ।

तो मैं ईसाई हूँ, और हिन्दु भी – और दोनो ही नहीं हूँ।

मनिपाल में, मेरे एकदम बगल वाले घर में एक वृद्ध पति-पत्नि रहते थे। आन्टीजी अपने बगान में कई सब्जियां उगा रखीं थीं। एक सुबह, वह मेरे अनुरोध पर घर आईं – मुझे सबजी उगाना सिखाने के लिए। घर के पिछवाड़े कई तुलसी के पौधे उगे हुए थे। हम ज़मीन को खोद कर सबजी उगाने के लिए तैयार कर रहे थे। तुलसी के पौधों के कारण जगह नहीं थी। मैंने कहा कि दो पौधों को उखाड़ देते हैं।

“तुम्हे एतराज़ नहीं है?” उन्होंने पूछा।

“नहीं क्यों? जगह चाहिए न सबजी उगाने के लिए। इतनी तुलसी का मैं क्या करूंगी? मुख्य तुलसी का गाछ आंगन में सामने है”, मैंने कहा — और हम शूरु हो गए।

कुछ देर बाद उन्होंने कहा, “नहीं तुम लोग इसे पूजनीय मानते हो न …” (आंटीजी ईसाई हैं)

मैंने कहा, “हाँ मानते तो हैं — जिससे कि हम जाने कि यह बहुत लाभकारी है, इसके कई पौष्टिक गुण हैं।”

अफ़सोस की आवाज़ में उन्होंने कहा, “हां हम लोगों से तो कई पीढ़ियों पहले ही यह सब छूट गया।”

उनकी बात सुनकर मुझे दु:ख हुआ। मन किया कि कहूँ, “तो क्या हुआ? आप अभी भी अपने ईसा-मसी को छोड़े बिना हिन्दु धर्म का वह सब अपना सकती हैं जो आपको पोषक लगे।”

ऐसा हम क्यों सोचते हैं कि हमारा एक ही धर्म हो सकता है? कुछ और अपनाएं तो अपने धर्म से कहीं कोई गद्दारी तो नहीं कर रहे हैं? यह ग्लानि और संशय निरर्थक है। हम अपनी परिभाषा, अपने अस्तित्व को सीमित क्यों रखें?

निस्तब्धता में मेरे अस्तित्व का बीज है। वह भाषा – निस्तब्धता – मेरी दुर्गा माँ हैं। और मेरी राधा भी।


मासी-माँ: बंगाल में मौसी को मासी-माँ ही कहते है

यह लेख दिसम्बर 2014 को गर्भनाल में प्रकाशित हुई थी

चित्र आभार: द स्कूप, न्यू मार्केट, कोलकाता – के मेन्यु-कार्ड से

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